जीवन तो है क्षण भंगुर

"जीवन तो है क्षण भंगुर"

बिछड़ कर ही समझ आता,
क्या है मोल साथी का ।

जब तक साथ रहे उसका,
क्यों अनमोल न उसे समझें ।

अच्छाइयाँ अगर धर्म है,
क्यों गल्तियों पर उठे उँगली ।

सराहने मे अहँ आड़े,
अनिच्छा क्यों सुझाएँ हम ।

ज्यों अहँ को गहन न होने दें,
तो परिलक्षित होवे क्यों ।

क्यों साथी के हर एक इच्छा,
को मृदुल-इच्छा न समझे हम ।

सामंजस्य की कमी जो नहीं,
कटुता का स्थान भी न हो ।

कहने को नेह बहुत,
तो फ़िर क्यों न वारे हम ।

खुशियों को सहेजें तो,
आपस का नेह अक्षुण क्यों न हो ।

दुःख भी तो रहे न सदा,
आपस में न बाटें क्यों ।

जो समर्पण को लगा लें गले,
क्यों अधिकार न त्यागे हम ।

यह जीवन तो है क्षण भंगुर,
विषादों तले गँवाएँ क्यों ।।

-कुसुम ठाकुर - 




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